Tuesday 5 May 2015

दौर

वो दौर ही कुछ अजीब था
जब हम ख़त लिखा करते थे
दिल के अरमा कागज पर बया करते थे

वो लोग भी अजीब थे
दस बाय दस की रूम
मे बिस बिस रहा करते थे

बड़ी बैचनी रहती थी
ख़त मिल जाने तक
तन्हाई का आलम रहता था
डाकिया आने तक

गांव से दूर अपनो से दूर
निकले थे रंगरंगिले शहरोंमें
दिल में नयी उमंग भरे
किस्मत आजमाने में

बड़ा टुटा था दिल जब घर छोड़ा था
रोख रखे थे पलकों में आसु जब
गांव से बीछडा था

फुट फुट कर रोये थे विन्डो सिट पर बैठकर
फीर संभाले थे खुद को निकले नयी राह पर 
छुट रही थी यादे पीछे दिख रहे थे सपने नए
हम भी थे नए शहर भी था नया

यहाँ लगता था हर चीज के लिए पैसा
अगर नहीं पैसा तो दिन गुजरेगा कैसा
खानावली मे मिलता था खाना गीनचुन कर
कभी खाते थे कभी फेकते थे सुंगसुंग कर

याद आता था माँ के हातो स्वाद
कितनी नोटंकी किया करते थे
खाना खाते वक़्त फिर भी खिलाती
थी माँ कभी प्यार से कभी डाटकर
भूक न होकर भी खा लिया करते थे
माँ की डाट सुनकर अब भूक होकर
भी निवाला नहीं उतरता था
खाने का स्वाद देखकर

हर कोई था ऐसा जो घर से निकला था
सब में था अपनापन बस प्यार बिखरा था
मिलजुल कर रहते थे सारे
अपना अपना जीवन सवारे

था वक़्त सबके पास एकदूसरे से मिलने का
एक निकलता गांव तो दस निकलते पहुचाने
एक निकलता कुछ खरीदने दस निकलते उसे
सलाह देने अजीब था वो दौर
जिसमे जुड़े थी सबके मनकी डोर
                                @ अशोक मटकर

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